
Gyan vigyan sangam
" पुरातन युग में ज्ञान-विज्ञान का संगम "
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योगदानकर्ता: महर्षि पिप्पलाद (भ्रूणविज्ञान के जनक) और कई अन्य ऋषि-मुनि
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समय अवधि: अंदाजीत पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व
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स्थान: भारतवर्ष, उपमहाद्वीप
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स्त्रोत: गर्भ उपनिषद
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विवरण: गर्भ उपनिषद हिंदू धर्म की वेदांतिक परंपरा के भीतर एक पाठ है जो भ्रूणविज्ञान और भ्रूण विकास के विभिन्न पहलुओं में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह भ्रूण के विकास के चरणों का वर्णन करता है, जिसमें विभिन्न शारीरिक संरचनाओं और अंगों का निर्माण भी शामिल है।
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प्रमाण:
गर्भ उपनिषद, श्लोक 1
षड्वीकारस् त्रयोदशा मासाः तीर्यक् स्तनम् आयुः
समानोऽन्नम् असृजते यदनन्नात् प्राणः शरीरो भवति॥
अनुवाद: "तेरह महीनों में, भ्रूण पूर्ण विकास प्राप्त कर लेता है। यह माँ द्वारा खाए गए भोजन पर भोजन करता है। भोजन के सार से, भ्रूण महत्वपूर्ण सार प्राप्त करता है; भ्रूण एक जीवित शरीर बन जाता है।"
अर्थ: गर्भ उपनिषद का यह श्लोक गर्भावस्था की अवधि को तेरह महीने बताता है और विकासशील भ्रूण के लिए पोषण के महत्व पर प्रकाश डालता है। यह माँ के भोजन से भ्रूण तक महत्वपूर्ण सार के संचरण को भी दर्शाता है, जो उसके विकास और जीवन शक्ति में योगदान देता है।
गर्भ उपनिषद, श्लोक 2
"तत्र स्पर्शानुविद्धं शुक्रस्तम्भं जायते।
तत्रावध्या अवध्यं संस्था आवाक्सरं विद्धम्॥"
अनुवाद: "वहां स्पर्श से वीर्य-तना बढ़ता है। वहां अजेय ही अजेय है। स्वर खंडित है।"
अर्थ: यह श्लोक भ्रूण के विकास के प्रारंभिक चरणों का वर्णन करता है, जिसमें स्पर्श के माध्यम से वीर्य-तने (शुक्रस्तंभ) की वृद्धि और उसके भीतर अजेय (अवध्या) की स्थापना का उल्लेख है। यह स्वर के विभाजन का भी संदर्भ देता है, जो संभवतः विकास के दौरान कोशिय संरचनाओं के भेदभाव का प्रतीक है।
भ्रूण विकास और गर्भ उपनिषद के बीच संबंध: गर्भ उपनिषद भ्रूण विज्ञान और भ्रूण विकास पर प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। पाठ का मूल्यवान अवलोकन और व्याख्याएं प्रदान करता है जो आधुनिक जीव विज्ञान को लगातार प्रेरित कर रहे हैं। इसके सिद्धांतों और ज्ञान का अध्ययन आज तक दुनिया भर में किया जाता है। गर्भ उपनिषद प्राचीन भारतीय संस्कृति में गर्भावस्था, मातृ स्वास्थ्य और जीवन निर्माण की चमत्कारी प्रकृति को दिए गए महत्व को दर्शाता है।
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योगदानकर्ता: कार्ल अर्न्स्ट वॉन बेयर
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समय अवधि: 1792 - 1876
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स्थान: यूरोप
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विवरण: भ्रूण विकास, जिसे भ्रूणजनन भी कहा जाता है, वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा भ्रूण बनता और विकसित होता है। इसमें निषेचन, कोशिका विभाजन, विभेदन और ऑर्गोजेनेसिस सहित जटिल जैविक घटनाओं की एक श्रृंखला शामिल है, जिससे एक नए जीव का निर्माण होता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार भ्रूण विकास की खोज सर कार्ल अर्न्स्ट ने की थी।

कार्ल अर्न्स्ट वॉन बेयर

निष्कर्ष: गर्भ उपनिषद हिंदू दार्शनिक और आध्यात्मिक शिक्षाओं के संदर्भ में भ्रूणविज्ञान और गर्भावस्था पर ज्ञान के एक प्राचीन स्रोत के रूप में कार्य करता है। प्राचीन विज्ञान और भ्रूणविज्ञान, वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी प्रगति के माध्यम से, वास्तविक ज्ञान के साथ काफी आगे बढ़ चुका था। गर्भ उपनिषद जैसे प्राचीन ग्रंथों में दिए गए दृष्टिकोण, भ्रूण संबंधी अवधारणाओं के ऐतिहासिक विकास और उनके सांस्कृतिक महत्व की हमारी समझ में योगदान देते हैं। यह आधुनिक विज्ञान को अति उपयोगी सिद्ध हुए हैं और आधुनिक विज्ञान के विकास में असीमित योगदान दे रहे हैं।
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आधुनिक विज्ञान: भ्रूण विकास


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प्राचीन विज्ञान: गर्भ विकास
सुंदर कामाक्षी मंदिर, तमिलनाडु में भ्रूण के विकास को दर्शाती पत्थर की नक्काशी।
भारतवर्ष में आधुनिक और प्राचीन सोनोग्राफी की प्रक्रियाए
एक महिला सीधी स्थिति में बच्चे को जन्म देते हुए
